सनसनाती कानो को चूमती हुई,
इन हवाओं में जिक्र, यूँ है,
कि कहीं दूर खुश है वो फिर,
दिल को उसकी फिक्र क्यों है।
बारिश की बूंदों में कैसी ये कशिश है,
शक होता है कि कुछ तो इनकी रंजिश है,
दो दिल मिलाने की नाकाम ये कोशिश है,
दायर वो मोहब्बत-ए-दरख्वास्त, हुई खारिज है।
धूप की ये कैसी अलबेली सी पहेली है,
कहती है की परछाई ही मेरी सहेली है,
पर रात की वो बताई बात, सयानी है,
मुसीबत में रहती, अपनी ही नाव अकेली है।
चंद लम्हो की रही जिंदगी मेरी,
दो पल का सुकून भी हुआ नसीब नही,
जज्बातों में ये जो ढलती गयी,
खुद ही की नजरों में हुआ, मैं ज़लील यहीं।
गज़ब का वो अशियाना था,
आखिर चार कंधों पे ले कर जाना था,
गर तसुव्वर की राह पे होते निकले,
तो गाया जाना अपना भी अफसाना था।
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