नासमझ थी, वो गलत थी,
आठ साल की थी न,
मंदिर-मस्जिद में भेद न कर पाई,
तो क्या हुआ, थे न
वो लोग जिन्होंने सिर्फ उस,
माटी के पुतले को ही नही,
बल्कि उसकी रूह को भी सबक सिखाया!
सिखा गए वो उसे भी और,
बाकी दुनिया को भी,
की बदले की आग में,
सब देख कर भी हम,
कुछ नही देखते!
पर उस नन्ही सी जान को,
ये सबक और ये दुनिया,
दोनों ही पसंद नही आए!
बस फिर क्या था।
नासमझ थी, वो गलत थी,
चाचा वो, हिन्दू है ये मुस्लिम,
भेद ही न कर पाई,
आठ साल की थी न,
पर तो क्या हुआ,
था न वो दरोगा,
ये समझाने के लिए,
कि रावण को तो हम,
इसलिए जलाते है,
ताकि हम पे कोई,
उँगली न उठाए!
पर उसे पसंद नही आई,
ये राम-रहीम में बंटी दुनिया,
पर तुम्हे कौन समझाए,
कौन बताए कि,
एक माचिस की तीली,
काफी होती है
पूरा घर जलाने को!
नासमझ थी, वो गलत थी,
आठ साल की थी न,
सोच रही होगी, क्या होता अगर,
नाम मेरा आशिफ़ा न होता!
My this poem is not for pointing any particular religion. If it hurt someone’s feelings, I am really sorrry for that. Thanks for your love 🖤
Me on:
बहुत खूब।
LikeLiked by 2 people
🖤
LikeLike
नाम आशिफ़ा न होता तो सुनीता होता ,मैरी होता ,तो भी यही होता ,
क्योंकि शेतान हर मज़हब में होता है,
मगर शैतान का कोई मज़हब नहीं होता….!!
LikeLiked by 3 people
बहुत सही कहा आपने! 🖤
LikeLiked by 1 person
वक्त-ऐ-दौर ऐसा हो चला है कि ये भी मुमकिन है कि कोई शब्दो को भी धर्म के चश्मे पहनकर देखता हो…..
LikeLiked by 1 person