भोर भयो दिखी वो कलि,
अभी कल ही तो थी ये खिली,
यौवन के चरम पे जो आई,
साँसे इसने मेरी बहकाई,
खुशबू में उसकी, मदहोशी छा गयी,
मुस्कुराहट उसकी, आग लगाने लगी,
वो लाल लाल, पंखुड़ियां बिछाए,
मेरा वक़्त, बस देखने मे गुज़र जाए,
कब बेवक़्त हुआ, ये तो पता न चला,
सूरज बे-लगाम चढ़ने, वो बढ़ने लगा,
यूँ ही एक सवाल दिमाग मे आया,
क्या ये रंग,और शरीर है, जो पसंद आया,
या है, दो आत्माओं का मिलन,
जिनका न होगा, कभी बिछड़न,
ख़ूबसुरती पे उसकी, सब जलने लगे,
सूरज ढलने का इंतेज़ार करने लगे,
था वो यूँ, कुछ पल के लिए ही,
पर इन पलो में मोहब्बत हो गयी,
अंधेरा धीमे धीमे, छाने लगा,
प्यार मेरा धीरे धीरे, मुरझाने लगा,
रोक लूं उसे, मन मे ख्याल आया,
अजीब से मोह में, खुद को फंसा पाया,
आंखें खोली, जब ध्यान आया,
जाना है एक दिन, जो भी आया,
फिर उस सवाल का जवाब पाया,
घना अंधेरा है, दुनिया मे छाया,
आत्मा वो, शरीर अपना छोड़ गई,
पर महक उसकी सांसों में बस गयी,
कठपुतली, वो मिट्टी की, जिसे अपना समझा,
अंश उसका, वो ख़ुसबू, सांसो में बह रहा,
दर्द मेरा मैंने, किसी को न बांटा,
इश्क़ था, मेरा गुलाब, मैं उसका कांटा..।