यूँ देखता हूँ पीछे, मुड़ के
जिंदगी भी अपनी क्या थी,
माना थी दर्द भरी,
पर खूबसूरत रही,
माना यूँ पानी की कमी रही,
पर जुबाँ न कभी सूखी थी,
माना बातें रह गयी कुछ अधूरी,
पर पूरी कहने वालों से कहाँ नूरी मिली,
माना आंखें मेरी बहुत बही,
पर इस दिल की किसने सुनी,
इश्क़ की राह चाहे, न मिली,
पर हर मोड़ पे थी यारी खड़ी,
जिनको अपना मान के थे चले,
धीरे धीरे वो साथ छोड़ गए,
माना लड़ते रहे एक दुसरे से,
पर प्यार कितना है, ये न कह सके,
माना खा गए, मेरा हिस्सा मेरे यारानी,
पर इस बात से भी कोई शिकायत न थी,
माना खाई मार कंबल के नीचे हमने भी,
पर बदला लेने में कसर हमने भी छोड़ी नही,
कागज़ फ़टे फिर पुरानी कापियों के ही,
सटा-सट जो सबसे अंधाधुंध मार पड़ी,
परांठे बने तब, मिली जो चपाती थी,
उसका स्वाद क्या था, ये ना पूछो भई,
रात के अंधेरे में उल्लू बन के घूमें,
जो त्योहारों पर डीजे पे झूमे,
यारों के कुछ यूं याराने थे,
कापियां भी पूछ कर ही दिखाते थे,
एक की गलती पर सब संग हो जाते थे,
दूसरे की जगह खुद मार खा आते थे,
पर कभी दोस्त का नाम जुबां पे न लाते थे,
ऐसी ये कहानी है,
सदियों तक सुनाई जानी है,
हर किसी की अपनी जुबानी है,
कुछ खट्टी कुछ मीठी बाते पुरानी है,
कहना चाहूं जितना कम पड़ जाता है,
सुनाऊं में कितना, शब्दो का भंडार, रह जाता है,
मुल्ला, मुगल, मल, नाम कई बनाये थे,
पर हम नव उदय नवोदया के कहलाएं थे।
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