बैठो संग मेरे, बात कहूं इक पते की,
राज़ नहीं, पर लोगो ने है आंखें मूंद ली,
बन्दर बन से रह रहे, वो “गाँधी” के तीन,
चुप तो यूँ है, जैसे जीभ ली हो इनकी छीन,
गला रौंदते रहे, पर बोला न मेरा फौजी भाई,
बेटा वो किसी का, इक बेटी की परछाई,
तिरंगा बन कफन, लाश वो लिपटी आई,
छोटी थी कद में, पर चेहरा वो पहचान न पाई।
सुनो तुम मझे, बात कहूं एक पते की,
स्वर्ग है ये दुनिया यूँ, नरक तेरी सोच है बनी,
यूँ रुक गया, वो होने वाला, माँ का जगराता,
दादी बोली, करते जोरो व धूम से, पोता अगर आता,
समझ न आई कि किस असमंजस में है पड़ी,
नाजुक सी कली ने, कैसी की है खटिया खड़ी।
समझो तुम मझे, बात कहूँ एक पते की,
सोचने जो बैठा, नफरत सी, है होने लगी,
सुनने मैं हुई आम सी, न सुबह, न शाम की,
कुकर्म व अम्ल हमले, लगे है देश को जुखाम सी,
निकलते लोग, सड़को पे, हाथो लिए, मोमबत्ती,
विशाल दरख़्त की, पतझड़ सी, झड़ रही हर पत्ती,
देखो तुम मुझे, बात कहूँ एक पते की,
न दुख, न सुख की, न हार, न फतेह की,
आया तो यूँ, सबकी तरह खाली हाथ ही,
फिर क्यों मरने पे, आंखें उसकी लाल थी,
माँ का वो लाल न जाने, क्या होती गरीबी,
भूख क्या होती है, उस से बेहतर समझा न कोई,
क्या कहूँ अब ओर, बात है एक पते की,
और यही एक है, बराबर सौ टके की,
गाँठ बांध लें, कल तेरी बारी आएगी,
वक़्त ही महान, बस यही, बात सही,
है पते की ….। बात…, है पते की…।
dark_anki
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